मैया तेरो लाल मटकियाँ फोड़ी रे।
संग में लेकर ग्वाल, वो मदन गोपाल
मटकियाँ फोड़ी रे।
मैं जल जमुना भरण को आई
राह में मिल गयो तेरो कुवँर कन्हाई
फोड़ दीन्ही मटकी मैं कैसे घर जाऊंगी
रोज नई मटकी कहाँ से मैया लाऊंगी
कभी करे ना टाळ , यो मदन गोपाल
मटकियाँ फोड़ी रे.....
घर जाऊं तो मेरी सास लड़ेगी
देखेगी ननदिया तो बरस पड़ेगी
सास ननद को मैं कैसे समझाऊंगी
ननदि के बीर से भी कह नही पाऊंगी
हे नटखट तेरो लाल, यो मदन गोपाल
मटकियाँ फोड़ी रे
सुनी जो व्यथा मन कान्हा का भर आया
अपने किये पे कान्हा बड़ा पछताया
बांसुरी बजायी ऐसी गोपी भरमाई है
रास की सुहानी बेला, सखी बन आयी है
नाचे दे दे ताल, निरंजन लाल
मटकियाँ फोड़ी रे.....
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